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दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार (अर्थ)

दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।

तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे दार ।।

अर्थ: यह मनुष्य जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है । और यह देह बार-बार नहीं मिलता जिस तरह पेड़ से पत्ता झड़ जाने के बाद फिर डाल में नहीं लग सकता है ।

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तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय (अर्थ)

तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।

कबहुँ के धर्म अगमदयी, कबहुँ गगन समाय ।।

अर्थ: मनुष्य का शरीर विमान के समान है और मन काग के समान है कि कभी तो नदी में गोते मारता है और कभी आकाश में जाकर उड़ता है ।

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तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर (अर्थ)

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर ।

तब लग जीव कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ।।

अर्थ: जब तक सूर्य उदय नहीं होता तब तक तारा चमकता रहता है इसी प्रकार जब तक जीव को पूरा ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता तब तक वह जीव कर्मवश में रहता है ।

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दिल का मरहम कोई न मिला, जो मिला सो गर्जी (अर्थ)

दिल का मरहम कोई न मिला, जो मिला सो गर्जी ।

कहे कबीर बादल फटा, क्यों कर सीवे दर्जी ।।

अर्थ: इस संसार में ऐसा कोई नहीं मिला, जो कि हृदय को शांति प्रदान करे । यदि कोई मिला तो वह अपने मतलब को सिद्ध करने वाला ही मिला संसार में स्वार्थियों को देखकर मन रूपी आकाश फट गया तो उसको दर्जी क्यों सीवे ।

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तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय (अर्थ)

तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय ।

सहजै सब बिधिपाइये, जो मन जोगी होय ।।

अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि शरीर से तो सभी योगी हो जाते हैं, परंतु मन से बिरला ही योगी होता है, जो आदमी मन से योगी हो जाता है वह सहज ही में सब कुछ पा लेता है ।

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तीर तुपक से जो लड़ै, सो तो शूर न होय (अर्थ)

तीर तुपक से जो लड़ै, सो तो शूर न होय ।

माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ।।

अर्थ: वह मानव वीर नहीं कहलाता जो केवल धनुष और तलवार से लड़ाई लड़ते हैं । सच्चा वीर तो वह है जो माया को त्याग कर भक्ति करता है ।

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तेरा साईं तुझ में, ज्यों पहुन में बास (अर्थ)

तेरा साईं तुझ में, ज्यों पहुन में बास ।

कस्तूरी का हिरण ज्यों, फिर-फिर ढूँढ़त घास ।।

अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य तेरा स्वामी भगवान तेरे ही अंदर उसी प्रकार है जिस प्रकार पुष्पों में सुगंध व्याप्त रहती है फिर भी तू जिस प्रकार कस्तूरी वाला हिरण अपने अंदर छिपी हुई कस्तूरी को अज्ञान से घास में ढूँढ़ता है उसी प्रकार ईश्वर को अपने से बाहर खोज करती है ।

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ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत (अर्थ)

ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।

प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ।।

अर्थ: जितना जीवन का समय सत्संग के बिना किए व्यतीत ही गया उसको निष्फल समझना चाहिए । यदि प्रभु के प्रति प्रेम तथा भगवतभक्ति नहीं है तो इस जीवन को पशु जीवन समझना चाहिए । मनुष्य जीवन भगवत भक्ति से ही सफल हो सकता है । अर्थात बिना भक्ति के मनुष्य जीवन बेकार है ।

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तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँव तले भी होय (अर्थ)

तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँव तले भी होय ।

कबहुँ उड़ आँखों पड़े, पीर घनेरी होय ।।

अर्थ: तिनके का भी अनादर नहीं करना चाहिए । चाहे वह हमारे व तुम्हारे पग के नीचे ही क्यों न हो यदि वह नेत्र में आकार गिर जाए तो बड़ा दुखदायी होता है । भाव इसका यह है कि तुच्छ वस्तुओं को निरादर की दृष्टि से मनुष्य को नहीं देखना चाहिए, क्योंकि कभी-कभी वही दुखदायी बन जाते हैं ।

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तीरथ गए से एक फल, सन्त मिलै फल चार (अर्थ)

तीरथ गए से एक फल, सन्त मिलै फल चार ।

सतगुरु मिले अधिक फल, कहै कबीर बिचार ।।

अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि यदि जीव तीर्थ करता है तो उसको एक गुना फल प्राप्त होता है, यदि जीव के लिए एक सन्त मिल जावे तो चार गुना फल होता है और यदि उसको श्रेष्ठ गुरु मिल जाये तो उसके लिए अनेक फल प्राप्त होते हैं ।

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