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पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित हुआ न कोय (अर्थ)

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित हुआ न कोय ।

एकै आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।

अर्थ: पुस्तकों को अध्ययन करते-करते जाने कितने व्यक्ति मर गए परंतु कोई पंडित न हुआ । प्रेम शब्द मोक्ष के पढ़ने से व्यक्ति पंडित हो जाता है क्योंकि सारे विश्व की सत्ता एवं महत्ता प्रेम पर ही अवलम्बित है । जो व्यक्ति प्रेम के महत्व को समुचित रूप से समझने में सफलीभूत होगा उसे सारे संसार के प्राणी एक अपूर्व बन्धुत्व के सूत्र में आबद्ध दिखाई पड़ेंगे और उसके हृदय में हिंसक भावनायें नष्ट हो जाएँगी तथा वसुधैव कुटुम्बकम का भाव जागृत होगा ।

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प्रेम न बारी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय (अर्थ)

प्रेम न बारी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।

राजा परजार जोहि रुचे, सीस देइ ले जाए ।।

अर्थ: प्रेम न जो बाड़ी (बगीचा) में उपजता है और न बाजार में बिकता है । अर्थात प्रेम साधारण वस्तु नहीं है । राजा प्रजा जिस किसी को अपने शीश (मस्तक) को रुचिपूर्वक बलिदान करना स्वीकार हो उसे ही प्रेम के सार रूप भगवान की प्राप्ति हो सकती है ।

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पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय (अर्थ)

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।

एक पहर भी नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ।।

अर्थ: दिन में आठ पहर होते हैं, उन आठ पहरों में से पाँच पहर सांसारिक धन्धों में व्यतीत हो गए और तीन पहर सोने में । यदि एक पहर भी भगवान का स्मरण न किया जाये तो किस प्रकार से मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है । अर्थात संसार में रहते हुए प्रभु का ध्यान अवश्य करना चाहिए ।

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न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय (अर्थ)

न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।

मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ।।

अर्थ: नहाने और धोने से क्या लाभ जब कि मन का मैल (पाप) दूर न होवे । जिस प्रकार मछ्ली सदैव पानी में जिंदा रहती है और उसको धोने पर भी उसकी दुर्गन्ध दूर नहीं होती है ।

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प्रेम पियाला जो पिये, सीस दक्षिणा देय (अर्थ)

प्रेम पियाला जो पिये, सीस दक्षिणा देय ।

लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ।।

अर्थ: व्यक्ति प्रेमामृत से परिपूर्ण प्याले का पान करते हैं वह उस प्याले के मूल्य को चुकाने के लिए अपने मस्तक को दक्षिणा के रूप में अर्पित करते हैं अर्थात वह प्रेम के महत्व को भलीभाँति समझते हैं और उसकी रक्षा के हेतु अपना सब कुछ देने के लिए प्रस्तुत रहते हैं तथा जो व्यक्ति लोभी होता है (जिनके हृदय में प्रेम दर्शन करते हैं) ऐसे व्यक्ति प्रेम पुकारते रहते हैं । परंतु समय आने पर प्रेम के रक्षार्थ अपना मस्तक (सर्वस्व) अर्पण करने में असमर्थ होते हैं ।

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धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय (अर्थ)

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ।।

अर्थ: हे मन धीरे-धीरे सब कुछ हो जाएगी माली सैकड़ों घड़े पानी पेड़ में देता है पर फल ऋतु आने पर ही लगता है ।

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नहिं शीतल है, चंद्रमा, हिम नहिं शीतल होय (अर्थ)

नहिं शीतल है, चंद्रमा, हिम नहिं शीतल होय ।

कबिरा शीतल संतजन, नाम स्नेही होय ।।

अर्थ: चंद्रमा शीतल नहीं है और हिम भी शीतल नहीं, क्योंकि उनकी शीतलता वास्तविक नहीं है । कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान के प्रेमी साधु-सन्तों में ही वास्तविक शीतलता का आभास होता है अन्य कहीं नहीं ।

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दया कौन पर कीजिये, कापर निर्दय होय (अर्थ)

दया कौन पर कीजिये, कापर निर्दय होय ।

साईं  के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ।।

अर्थ: किस पर दया करनी चाहिए या किस पर नहीं करनी चाहिए हाथी और कीड़ा अर्थात छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े सब भगवान के बनाए हुए जीव हैं । उनको समदृष्टि से देखना चाहिए ।

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दया आप हृदय नहीं, ज्ञान कथे वे हद (अर्थ)

दया आप हृदय नहीं, ज्ञान कथे वे हद ।

ते नर नरक ही जायंगे, सुन-सुन साखी शब्द ।।

अर्थ: जिनके हृदय में दया नहीं है और ज्ञान की कथायें कहते हैं वह चाहे सौ शब्द क्यों न सुन लें परंतु उनको नर्क ही मिलेगा ।

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दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी मौन (अर्थ)

दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी मौन ।

रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ।

अर्थ: यह जो शरीर है इसमें जो प्राण वायु है वह इस शरीर में होने वाले दस द्वारों से निकल सकता है । इसमें कोई अचरज की बात नहीं है । अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय मृत्यु का कारण बन सकती है ।

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