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गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच (अर्थ)

गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।

हारि चले सो साधु हैं, लागि चले सो नीच ।।

अर्थ: गाली से ही कलह और दुःख तथा मृत्यु पैदा होती है जो गाली सुनकर हार मानकर चला जाए वही साधु जानो यानी सज्जन पुरुष और जो गाली देने के बदले में गाली देने लग जाता है वह नीच है ।

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घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल (अर्थ)

घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।

दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ।।

अर्थ: तेल खाने से घी के दर्शन करना ही उत्तम है । मूर्ख मित्र रखना खराब है तथा बुद्धिमान शत्रु अच्छा है । मूर्ख में ज्ञान न होने के कारण जाने कब धोखा दे दे, परंतु चतुर वैरी हानि पहूँचाएगा उसमें चतुराई अवश्य चमकती होगी ।

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घाट का परदा खोलकर, सन्मुख ले दीदार (अर्थ)

घाट का परदा खोलकर, सन्मुख ले दीदार ।

बाल सनेही साइयां, आवा अंत का यार ।।

अर्थ: जो भगवान के शैशव अवस्था का सखा और आदि से समाप्ती तक का मित्र है । कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव अपने ज्ञान चक्षु द्वारा हृदय में उसके दर्शन कर!

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चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार (अर्थ)

चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।

वाके अङ्ग लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ।।

अर्थ: साधु चन्दन के समान है और सांसारिक विषय वासना सर्प की तरह है । जिसमें पर विष चढ़ता हि रहता है सत्संग करने से कोई विकार पास नहीं आता है । क्या विषयों में फँसा हुआ मनुष्य कभी किसी प्रकार पार पा सकता हैं ?

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खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह (arth)

खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।

आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ।।

अर्थ: जो बलवान है वह दो सेनाओं के बीच भी लड़ता रहेगा उसे अपने मरने की चिंता नहीं और वो मैदान छोड़कर नहीं भागेगा ।।

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गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह (अर्थ)

गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।

कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ।।

अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जो साधु पुरुष धन का गठबंधन नहीं करते हैं तथा जो स्त्री से नेह नहीं करते हैं, हम तो ऐसे साधु के चरणों की धूल के समान हैं ।

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गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाँय (अर्थ)

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाँय ।

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय ।।

अर्थ: गुरु और गोविंद मेरे सन्मुख दोनों खड़े हैं हुए हैं अब मैं किनके पैरों में पड़ूँ, जब यह प्रश्न उठता है उस समय कबीर जी कहते हैं कि मैं अपने गुरुजी का ही धन्यवाद समझता हूँ क्योंकि उन्होने मेरे लिए ज्ञान देकर ईश्वर को बता दिया अर्थात बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता है ।

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गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव (अर्थ)

गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।

कहे कबीर बैकुंठ से, फेर दिया शुकदेव ।।

अर्थ: यदि किसी ने अपना गुरु नहीं बनाया और जन्म से ही हरि सेवा में लगा हुआ है तो उसे शुकदेव की तरह बैकुंठ से आना पड़ेगा ।

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कांचे भाड़े से रहे, ज्यों कुम्हार का नेह (अर्थ)

कांचे भाड़े से रहे, ज्यों कुम्हार का नेह ।

अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ।।

अर्थ: जिस तरह कुम्हार बहुत ध्यान व प्रेम से कच्चे बर्तन को बाहर से थपथपाता है और भीतर से सहारा देता है । इसी प्रकार गुरु को चेले का ध्यान रखना चाहिए ।

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केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह (अर्थ)

केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।

अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ।।

अर्थ: बिना प्रेम की भक्ति के वर्ष बीत गया तो ऐसी भक्ति से क्या लाभ जैसे बंजर जमीन में बोने से फल नहीं होता चाहे कितना ही मेह बरसे ऐसे ही बिना प्रेम की भक्ति फलदायक नहीं होती ।

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