जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।।
अर्थ: किसी साधु से उनकी जाति न पूछो बल्कि उससे ज्ञान पूछो ठीक इसी प्रकार जैसे तलवार खरीदते समय सिर्फ तलवार का मोल यानि भाव देखा जाता है न ही म्यान का।
अर्थ: किसी साधु से उनकी जाति न पूछो बल्कि उससे ज्ञान पूछो ठीक इसी प्रकार जैसे तलवार खरीदते समय सिर्फ तलवार का मोल यानि भाव देखा जाता है न ही म्यान का।
अर्थ: निराकार ब्रह्म का कोई रूप नहीं है वह सर्वत्र व्यापक है न वह विशेष सुंदर ही है और न कुरूप ही है वह अनूठा तत्व पुष्प की गन्ध से पतला है ।
अर्थ: जिस प्रकार नेत्रों के अंदर पुतली रहती है और वह सारे संसार को देख सकती है, किन्तु अपने को नहीं उसी तरह भगवान हृदय में विराजमान है और मूर्ख लोग बाहर ढूँढ़ते फिरते हैं ।
अर्थ: जिस आदमी के हृदय में प्रेम नहीं है वह श्मशान के सदृश्य भयानक एवं त्याज्य होता है | जिस प्रकार के लुहार की धौंकनी की भरी हुई खाल बगैर प्राण के साँस लेती है उसी प्रकार उस आदमी का कोई महत्व नहीं है ।
अर्थ: जहाँ पर काम वासना है वहाँ पर भगवान का नाम नहीं आ सकता है । जहाँ पर भगवान का नाम है वहाँ मोह, काम वासनाएँ नहीं आ सकती हैं । मोह-काम वासनाएँ और भगवान का नाम ये दोनों एक स्थान पर एकत्रित नहीं हो सकते हैं । जिस प्रकार कि रात्रि में सूर्य का अभाव रहता है । उसी प्रकार ईश्वर प्रेम के ज्ञान रूपी प्रकाश में अज्ञान का नाश हो जाता है ।
अर्थ: जिस आदमी में दया है तो वहाँ पर ही धर्म है जहाँ पर लोभ है वहाँ पर पाप है, जहाँ पर क्रोध है वहाँ पर मृत्यु । जहाँ पर मनुष्य क्षमा साधारण करे वह परमात्मा का भक्त बन जाता है ।
अर्थ: कबीर जी कहते हैं कि जीव यदि तेरे लिए कोई कांटे बोवे तो तू उसको फूल बो अर्थात हे प्राणी तेरे साथ में कोई बदी करे तो तू उसके साथ नेकी कर अर्थात मेरे लिए तेरा सदव्यवहार है और किसी का तेरे लिए किया हुआ । दुर्व्यवहार पुनः उसके लिए कांटा है ।
अर्थ: जब तक संसार की प्रवृत्तियों में जीव का मन लगा हुआ है तब तक उस जीव पर भक्ति नहीं हो सकती है । यदि जीव इस संसार के मोह आदि वृत्तियों का त्याग करके विष्णु भगवान का स्मरण करता है तभी भक्त कहला सकता है । अर्थात बिना वैराग्य के भक्ति नहीं मिल सकती ।
अर्थ: जब तक भक्ति स्वार्थ के लिए है तब तक ईश्वर की भक्ति निष्फल है । इसलिए भक्ति निष्काम करनी चाहिए । कबीर जी कहते हैं कि इच्छारहित भक्ति में भगवान के दर्शन होते हैं ।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जीव कहता है कि जब मैं था तब गुरु नहीं थे अर्थात मुझ में अंधकार का प्रवेश था या अहंकार का भाव था, परंतु अब अहम भाव नष्ट हुआ तब मैं गुरु को मानने लगा और उनके सामने मैं अपने को कुछ नहीं समझता था । इस कारण मेरे लिए भगवान का दर्शन होना प्रारम्भ हो गया अर्थात प्रेम की जो गली है वह बहुत सँकरी है जिसमें अहम भाव तथा ईश्वर के प्रति भक्ति दोनों नहीं समा सकते हैं।